केंद्र और राज्य के बीच संबंध

केंद्र और राज्य के बीच संबंध

भारत में स्वतंत्रता उपरांत केंद्र-राज्य संबंध का मसला अत्याधिक संवेदनशील मामला रहा है। विषय चाहे अलग भाषाओं की पहचान, असमान विकास, राज्यों के गठन का हो, पुनर्गठन का हो या फिर विशेष राज्य का दर्जा देने से जुड़ा हो। ये सब केंद्र-राज्य संबंधों की सीमा में आते हैं। इनके अलावा देश में शिक्षा, व्यापार जैसे विषयों पर नीति निर्माण के सवाल उठने पर भी उसके केन्द्र में है केंद्र और राज्य के बीच में इनको लेकर क्या आपसी समझ है, यही महत्त्वपूर्ण होता है। भारतीय संविधान में भारत को राज्यों का संघ‘ कहा गया है न कि संघवादी राज्य। भारतीय संविधान में विधायी, प्रशासिनिक और वित्तीय शक्तियों का सुस्पष्ट बंटवारा केंद्र और राज्यों के बीच किया है।

केंद्र और राज्य के बीच शक्ति का वितरण

भारत के संविधान ने केन्द्र-राज्य सम्बन्ध के बीच शक्तियों के वितरण की निश्चित और सुस्पष्ट योजना अपनायी है। संविधान के आधार पर संघ तथा राज्यों के सम्बन्धों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है:

केंद्र और राज्य के बीच संबंध
केन्द्र-राज्य
  • केन्द्र तथा राज्यों के बीच विधायी सम्बन्ध।
  • केन्द्र तथा राज्यों के बीच प्रशासनिक सम्बन्ध।
  • केन्द्र तथा राज्यों के बीच वित्तीय सम्बन्ध।

केंद्र और राज्य के बीच विधायी संबंध

भारत, राज्यों का एक संघ है। भारत के संविधान को विधायपालिका, कार्यपालिका और केंद्र तथा राज्यों के बीच वित्तीय शक्तियों में विभाजित किया गया है, जो संविधान को संघीय विशेषता प्रदान करता है जबकि न्यायपालिका एक श्रेणीबद्ध संरचना में एकीकृत है। भाग XI में अनुच्छेद 245-255 केंद्र और राज्यों के बीच विधायी संबंधों के विभिन्न पहलुओं का आदान-प्रदान करता है।

संसद और राज्यों के विधान मंडलों द्वारा बनाए गए कानूनी क्षेत्राधिकार।
विधायी विषयों की वितरण
राज्य सूची में एक विषय के संबंध में संसद को कानून बनाने की शक्तियां
केंद्र सरकार के नियंत्रण वाली राज्य विधान मंडल
केंद्र और राज्य के बीच संबंध

इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अनुच्छेद भी इस विषय से संबंधित हैं। संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग और समन्वय को सुरक्षित करने के लिए विभिन्न प्रावधान तय किए गए हैं।

• वर्तमान में, संघ सूची के अंतर्गत 100 विषय शामिल हैं जिसमें विदेशी मामलों, रक्षा, रेलवे, डाक सेवा, बैंकिंग, परमाणु ऊर्जा, संचार, मुद्रा आदि जैसे विषय शामिल हैं।

• वर्तमान में, राज्य सूची में 61 विषय शामिल हैं। सूची में पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था, परिवहन, स्वास्थ्य, कृषि, स्थानीय सरकार, पेयजल की सुविधा, साफ-सफाई आदि जैसे विषय शामिल हैं।

• वर्तमान में, समवर्ती सूची में 52 विषय शामिल हैं। सूची में शिक्षा, वन, जंगली जानवरों और पक्षियों की रक्षा, बिजली, श्रम कल्याण, आपराधिक कानून और प्रक्रिया, सिविल प्रक्रिया, जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन, दवा आदि जैसे विषय शामिल हैं।

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संविधान के अनुच्छेद 245 में कहा गया है कि इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए संसद भारत के संपूर्ण राज्य क्षेत्र अथवा उसके किसी भाग के लिये विधि बना सकेगी तथा किसी राज्य का विधानमंडल उस संपूर्ण राज्य अथवा किसी भाग के लिये विधि बना सकेगा। भारतीय संविधान में केंद्र व राज्यों के बीच विधायी शक्तियों के रूप में सातवीं अनुसूची में तीन प्रकार की सूचियाँ उपस्थित हैं। प्रथम ‘संघ सूची’ में महत्त्वपूर्ण विषयों का उल्लेख है जिसमें रक्षा, विदेश नीति, संचार आदि शामिल हैं और जहाँ सिर्फ केंद्र के कानून प्रभावी हैं।

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अनुच्छेद 252 के अनुसार, दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमंडल एक संकल्प पारित करके संसद से अनुरोध कर सकते हैं कि वे राज्य सूची के किसी विषय के बारे में विधियाँ बनाएँ। ऐसी विधियों का विस्तार अन्य राज्यों पर भी किया जा सकता है बशर्ते संबद्ध राज्यों के विधानमंडल इस आशय के संकल्प पारित करें।
संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति विभाजन हेतु केवल एक सूची का उल्लेख है, जबकि ऑस्ट्रेलिया के संविधान में भी शक्ति विभाजन की दो सूचियों का उल्लेख है।

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भाग XI में अनुच्छेद 245-255 केंद्र और राज्यों के बीच विधायी संबंधों के विभिन्न पहलुओं का आदान-प्रदान करता है। इसमे शामिल हैं:

हालांकि, संविधान की सातवीं अनुसूची केंद्र और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों का वितरण प्रदान करती है। विधायी विषयों को प्रथम सूची (संघ सूची), द्वितीय सूची (समवर्ती सूची) और तृतीय सूची (राज्य सूची) में बांटा गया है।

यद्यपि संविधान द्वारा केंद्र तथा राज्यों की विधायी शक्तियों का स्पष्ट रूप से विभाजन किया गया है लेकिन व्यावहारिक रूप से संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान है जिसके द्वारा केंद्र सरकार राज्य सरकारों की विधायी शक्तियों में हस्तक्षेप कर सकती है।

  • अनुच्छेद 245 अपनी कार्यकारी शक्तियों के प्रयोग से संबंधित कुछ मामलों में राज्यों को निर्देश देने के लिए केंद्र को शक्तियां प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद 249 राष्ट्रीय हित में राज्य सूची में एक विषय के संबंध में कानून बनाने के लिए संसद को शक्तियां प्रदान करता है। यदि राज्यसभा अपने उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव करें कि राष्ट्र हित में यह आवश्यक या हितकर है तो संसद राज्य सूची में दिये गए किसी विषय पर कानून बना सकती है।
  • अनुच्छेद 368 में यह स्पष्ट किया गया है कि संविधान के कुछ प्रावधानों में संशोधन के लिए आधे से अधिक राज्यों के विधानमंडलों द्वारा अनुसमर्थन किया जाना आवश्यक है। ये विषय हैं- राष्ट्रपति के निर्वाचन की प्रक्रिया, संघ की कार्यपालिका शक्ति का क्षेत्र, राज्य की कार्यपालिका शक्ति का क्षेत्र, विधायी शक्ति का वितरण आदि।
  • अनुच्छेद 250 के तहत, संसद जब राष्ट्रीय आपात स्थिति (अनुच्छेद 352) होती है तो संसद के हाथों में राज्य सूची से संबंधित मामलों पर कानून बनाने की शक्तियां आ जाती हैं।
  • अनुच्छेद 252 के तहत, संसद के पास दो या दो से अधिक राज्यों के लिए उनकी सहमति से कानून बनाने का अधिकार है।
  • अनुच्छेद 356 के अनुसार, जब राष्ट्रपति को राज्यपाल की रिपोर्ट पर यह समाधान हो जाए कि किसी राज्य में ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जिसमें राज्य का शासन वैधानिक उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है तो राष्ट्रपति यह घोषित करेगा कि राज्य के विधानमंडल की शक्तियाँ संसद के प्राधिकार के द्वारा प्रयोग की जाएंगी।

केंद्र और राज्य के बीच प्रशासनिक संबंध

किसी विषय विशेष पर विधि निर्माण का अधिकार राज्य विधानपालिका का है अथवा संघ विधानपालिका का, इस पर राज्य और संघ के बीच अथवा राज्यों के बीच मतभेद हो सकता है। निर्णय करने के लिए न्यायालय को यह देखना होगा कि अमुक विषय का सार और सत्त्व सातवीं अनुसूची की कौन सी सूची के अंतर्गत आता है। इसे ‘सार और सत्त्व का सिद्धांत’ या ‘डॉक्ट्रिन ऑफ पीथ एंड सब्सटेंस’ कहा जाता है।
उपर्युक्त वर्णित प्रावधान व बिंदु केंद्र-राज्य के मध्य विधायी संबंधों को प्रभावित करते हैं। स्पष्ट है कि परंपरागत संघात्मक सिद्धांत के अनुसरण से अधिक हमारे संविधान निर्माताओं ने देश की एकता एवं अखंडता को प्राथमिकता दी है। इसके अतिरिक्त देश के विकास के लिये केंद्रीय नियंत्रण आवश्यक माना गया है।


केंद्र राज्य सम्बन्ध आयोग

आयोग का सुझाव है कि केन्द्र में सत्तारूढ़ दल के अलावा किसी अन्य दल द्वारा शासित राज्य में केन्द्र में सत्तारूढ़ दल के किसी व्यक्ति को राज्यपाल नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। राज्य के पद से निवृत्त होने के बाद किसी व्यक्ति को लाभ का कोई भी पद नहीं देना चाहिए। वह राष्ट्रपति पद या उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ सकता है, पर दलगत राजनीति में सक्रिय भाग नहीं ले सकता। आयोग का सुझाव है कि संविधान के अनुच्छेद 155 में संशोधन कर राज्यपाल की नियुक्ति के बारे में राज्य के मुख्यमंत्री से सलाह-मशविरे की व्यवस्था अनिवार्य कर दी जानी चाहिए।

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राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों व अध्यक्ष की नियुक्ति राज्यपाल करता है किन्तु उन्हें पद से हटाने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को होता है।
किसी राज्य का राज्यपाल अगर संघ लोक सेवा आयोग से निवेदन करता है तो आयोग उस राज्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कार्य कर सकता है। दो या अधिक राज्यों के राज्यपालों के संयुक्त निवेदन पर वह संयुक्त भर्ती जैसी परीक्षाएँ भी आयोजित कर सकता है।
दो या अधिक राज्यों के विधानमंडलों के निवेदन पर संसद संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग का गठन कर सकती है। ऐसे आयोग के अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।

केन्द्र-राज्य सम्बन्ध- सांविधानिक प्रावधान

अनुच्छेद 246:-संसद को सातवीं अनुसूची की सूची 1 में प्रगणित विषयों पर विधि बनाने की शक्ति।

अनुच्छेद 248:-अवशिष्ट शक्तियां संसद के पास

अनुच्छेद 249:-राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में राष्ट्रीय हित में विधि बनाने की शक्ति संसद के पास

अनुच्छेद 250:-यदि आपातकाल की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तो राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की संसद की शक्ति

अनुच्छेद 252:-दो या अधिक राज्यों के लिए उनकी सहमति से विधि बनाने की संसद की शक्ति

अनुच्छेद 257:-संघ की कार्यपालिका किसी राज्य को निदेश दे सकती है

अनुच्छेद 257 क:-संघ के सशस्त्र बलों या अन्य बलों के अभिनियोजन द्वारा राज्यों की सहायता

अनुच्छेद 263:-अन्तर्राज्य परिषद का प्रावधान

अनुच्छेद 256 के अनुसार राज्य सरकार का दायित्व है कि वह संसद द्वारा पारित विधि को मान्यता दे।
अनुच्छेद 257 (1) के अनुसार प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार से किया जाएगा कि वह केन्द्र की कार्यकारी शक्ति के प्रयोग में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न न करें, हालांकि केन्द्र को इस प्रयोजन हेतु राज्यों को आवश्यक निर्देश देने का अधिकार होगा।
अनुच्छेद 258 के अनुसार राष्ट्रपति, किसी राज्य की सरकार की सहमति से उस सरकार को या उसके अधिकारियों को ऐसे किसी विषय से संबंधित कार्य, जिन पर संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है सशर्त या बिना शर्त सौंप सकेगा।
इसी प्रकार अनुच्छेद 258क के अनुसार किसी राज्य का राज्यपाल, भारत सरकार की उस सरकार को या उसके अधिकारियों को ऐसे किसी विषय से संबंधित कृत्य, जिन पर उस राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, सशर्त या बिना शर्त सौंप सकेगा।
अनुच्छेद 352 के अनुसार जब आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तब केन्द्र राज्यों को यह निर्देश दे सकता है कि वह अपनी कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग किस तरह (Manner) से करेगा।
अनुच्छेद 355 के तहत यह सुनिश्चित करने के लिए की राज्य की सरकार संविधान के अनुसार चलायी जाए, केन्द्र किसी राज्य को आवश्यक निर्देश दे सकता है।
अनुच्छेद 356 के तहत राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो तो राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा राज्य के सभी या किन्हीं कार्यपालिकीय शक्तियों को अपने हाथ में ले सकता है।
संविधानेत्तर प्रावधान

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अनु 256 के अनुसार राज्य की कार्यपालिका शक्तियाँ इस तरह प्रयोग लायी जाये कि संसद द्वारा पारित विधियों का पालन हो सके। इस तरह संसद की विधि के अधीन विधिंयों का पालन हो सके। इस तरह संसद की विधि के अधीन राज्य कार्यपालिका शक्ति आ गयी है। केन्द्र राज्य को ऐसे निर्देश दे सकता है जो इस संबंध में आवश्यक हो।
अनु 257 कुछ मामलों में राज्य पर केन्द्र नियंत्रण की बात करता है। राज्य कार्यपालिका शक्ति इस तरह प्रयोग ली जाये कि वह संघ कार्यपालिका से संघर्ष न करे। केन्द्र अनेक क्षेत्रों में राज्य को उसकी कार्यपालिका शक्ति कैसे प्रयोग करे इस पर निर्देश दे सकता है। यदि राज्य निर्देश पालन में असफल रहा तो राज्य में राष्ट्रपति शासन तक लाया जा सकता है।
अनु 258 के अनुसार संसद को राज्य प्रशासनिक तंत्र को उस तरह प्रयोग लेने की शक्ति देता है जिनसे संघीय विधि पालित हो केन्द्र को अधिकार है कि वह राज्य में बिना उसकी मर्जी के सेना, केन्द्रीय सुरक्षा बल तैनात कर सकता है

केन्द्र-राज्य सम्बन्ध के विधायी सम्बन्धों का संचालन उन तीन सूचियों के आधार पर होता है जिन्हें

संघ सूची (Union List)
राज्य सूची (State List)
समवर्ती सूची(Concurrent List
) का नाम दिया गया है। इन सूचियों को सातवीं अनुसूची में रखा गया है।

संघ सूची:-इस सूची में राष्ट्रीय महत्व के ऐसे विषयों को रखा गया है जिनके सम्बन्ध में सम्पूर्ण देश में एक ही प्रकार की नीति को अपनाना आवश्यक कहा जा सकता है। इस सूची के सभी विषयों में विधि निर्माण का अधिकार संघीय संसद को प्राप्त है। इस सूची में कुल 99 विषय हैं जिनमें से कुछ प्रमुख ये हैं-रक्षा, वैदेशिक मामले, युद्ध व सन्धि, देशीकरण व नागरिकता, विदेशियों का आना-जाना, रेल, बन्दरगाह, हवाई मार्ग, डाकतार, टेलीफोन व बेतार, मुद्रा निर्माण, बैंक, बीमा, खानें व खनिज, आदि।

राज्य सूची:-इस सूची में साधारणतया वे विषय रखे गये हैं जो क्षेत्रीय महत्व के हैं। इस सूची के विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार सामान्यतया राजयों की व्यवस्थापिकाओं को प्राप्त है। इस सूची में 61 विषय हैं, जिनमें कुछ प्रमुख हैं: पुलिस, न्याय, जेल, स्थानीय स्वशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई और सड़कें आदि।

समवर्ती सूची:-औपचारिक रूप में और कानूनी दृष्टि से इन तीनों सूचियों के विषयों की संख्या वही बनी हुई है, जो मूल संविधान में थी। लेकिन 42वें संवैधानिक संशोधन (1976) द्वारा राज्य सूची के चार विषय (शिक्षा, वन, जंगली जानवर तथा पक्षियों की रक्षा और नाप-तौल) समवर्ती सूची में कर दिए गए हैं और समवर्ती सूची में एक नवीन विषय ’जनसंख्या नियन्त्रण और परिवार नियोजन’ शामिल किया गया है।

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इस प्रकार आज स्थिति यह है कि गणना की दृष्टि से समवर्ती सूची के विषयों की संख्या 52 हो गई है, लेकिन संवैधानिक दृष्टि से समवर्ती सूची के विषयों की संख्या आज भी 47 ही है। इस सूची में साधारणतया वे विषय रखे गए हैं, जिनका महत्व संघीय और क्षेत्रीय, दोनों ही दृष्टियों से है। इस सूची के विषयों पर संघ तथा राज्यों दोनों को ही कानून निर्माण का अधिकार प्राप्त है। यदि इस सूची के किसी विषय पर संघ तथा राज्य सरकार द्वारा निर्मित कानून परस्पर विरोधी हों, तो सामान्यतः संघ का कानून मान्य होगा। इस सूची में कुल 47 विषय हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख विषय हैं: फौजदारी, विधि तथा प्रक्रिया, निवारक निरोध, विवाह और विवाह-विच्छेद, दत्तक और उत्तराधिकार, कारखाने, श्रमिक संघ, औद्योगिक विवाद, सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा, पुनर्वास और पुरातत्व, शिक्षा और वन, आदि।

अवशेष विषय:-भारतीय संघ में कनाडा के संघ की तरह अवशेष विषयों के सम्बन्ध में कानून निर्माण की शक्ति संघीय व्यवस्थापिका को प्रदान की गयी है।

राज्य सूची के विषयों पर संसद की व्यवस्थापन की शक्ति:-

सामान्यतया संविधान द्वारा किए गए इस शक्ति विभाजन का उल्लंघन किसी भी सत्ता द्वारा नहीं किया जा सकता। संसद द्वारा राज्य सूची के किसी विषय पर और किसी राज्य की व्यवस्थापिका द्वारा संघ सूची के किसी विषय पर निर्मित कानून अवैध होगा। लेकिन संसद के द्वारा कुद विशेष परिस्थितियों के अन्तर्गत राष्ट्रीय हित तथा राष्ट्रीय एकता हेतु राज्य सूची के विषयों पर भी कानूनों का निर्माण किया जा सकता है। संसद को इस प्रकार की शक्ति प्रदान करने वाले संविधान के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं:

राज्य सूची का विषय राष्ट्रीय महत्व का होने पर:- संविधान के अनुच्छेद 249 के अनुसार यदि राज्यसभा अपने दो-तिहाई बहुमत से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेती है कि राज्य सूची में उल्लिखित कोई विषय राष्ट्रीय महत्व का हो गया है, तो संसद को उस विषय पर विधि निर्माण का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इसकी मान्यता केवल एक वर्ष तक रहती है। राज्यसभा द्वारा प्रस्ताव पुनः स्वीकृत करने पर इसकी अवधि में एक वर्ष की वृद्धि और हो जाएगी। इसकी अवधि समाप्त हो जाने के उपरान्त भी यह 6 माह तक प्रयोग में आ सकता है।

राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा इच्छा प्रकट करने पर:- अनुच्छेद 252 के अनुसार यदि दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डल प्रस्ताव पास कर यह इच्छा व्यक्त करते हें कि राज्य सूची के किन्हीं विषयों पर संसद द्वारा कानून का निर्माण किया जाए, तो उन राज्यों के लिए उन विषयों पर अधिनियम बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त हो जाता है। राज्यों के विधानमण्डल न तो इन्हें संशोधित कर सकते हैं और न ही इन्हें पूर्ण रूप से समाप्त कर सकते है

संकटकालीन घोषणा होने पर (अनुच्छेद 250):-संकटकालीन घोषणा की स्थिति में राज्य की समस्त विधायिनी शक्ति पर भारतीय संसद का अधिकार हो जाता है। इस घोषणा की समाप्ति के 6 माह बाद तक संसद द्वारा निर्मित कानून पूर्ववत् चलते रहेंगे

विदेशी राज्यों से हुई सन्धियों के पालन हेतु (अनुच्छेद 253):-यदि सरकार ने विदेशी राज्यों से किसी प्रकार की सन्धि की है अथवा उनके सहयोग के आधार पर किसी नवीन योजना का निर्माण किया है तो इस सन्धि के पालन हेतु संघ सरकार को सम्पूर्ण भारत की सीमा क्षेत्र के अन्तर्गत पूर्णतया हस्तक्षेप और व्यवस्था करने का अधिकार होगा। इस प्रकार इस स्थिति में भी संसद को राज्य सूची के विषय पर कानून निर्माण का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

राज्य में संवैधानिक व्यवस्था भंग होने पर (अनुच्छेद 356):-यदि किसी राज्य में संवैधानिक संकट उत्पन्न हो जाए या संवैधानिक संकट उत्पन्न हो जाए या संवैधानिक तन्त्र विफल हो जाए तो राष्ट्रपति राज्य विधानमण्डल के समस्त अधिकार भारतीय संसद को प्रदान करता है।

कुछ विधेयकों को प्रस्तावित करने और कुछ की अन्तिम स्वीकृति के लिए केन्द्र का अनुमोदन आवश्यक:-अनुच्छेद 304(ख) के अनुसार कुछ विधेयक ऐसे होते हैं, जिनके राज्य विधानमण्डल में प्रस्तावित किए जाने के पूर्व राष्ट्रपति की पूर्व-स्वीकृति की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, वे विधयक, जिनके द्वारा सार्वजनिक हित की दृष्टि से उस राज्य के अन्दर या उसके बाहर व्यापार, वाणिज्य या मेलजोल पर कोई प्रतिबन्ध लगाए जाने हों।

अनुच्छेद 31(ग) के अनुसार राज्य सूची के ही कुछ विषयों पर राज्यों की व्यवस्थापिकाओं द्वारा पारित विधेयक उस दशा में अमान्य होंगे, यदि उन्हें राष्ट्रपति के विचारार्थ न रोके रखा हो और उन पर राष्ट्रपति की स्वीकृति न प्राप्त कर ली गयी हो। उदाहरण के लिए, किसी राज्य द्वारा सम्पत्ति के अधिग्रहण के लिए बनाए गए कानूनों या समवर्ती सूची के विषयों के बारे में ऐसे कानूनों, जो संसद के उससे पहले बनाए गए कानून के प्रतिकूल हों या उन पर जिनके द्वारा ऐसी वस्तुओं की खरीद और बिक्री पर लगाया जाने वाला हो, जिन्हें संसद ने समाज के जीवन के लिए आवश्यक घोषित कर दिया है, राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक है।

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केंद्र और राज्य के बीच विवाद

राज्य-सूची के विषयों पर केन्द्रीय हस्तक्षेप:-राज्यों द्वारा यह भी शिकायत की गयी है कि केन्द्र उद्योग, व्यापार एवं वाणिज्य जैसे विषयों पर कानून बनाने लग गया है, जबकि ये विषय राज्य सूची में उल्लिखित हैं। सन् 1951 में संसद ने उद्योग विकास एवं नियन्त्रण अधिनियम पारित किया, जिसमें उन उद्योगों का उल्लेख किया गया, जिन पर जनहित में केन्द्र द्वारा नियन्त्रण करना आवश्यक था। धीरे-धीरे अनेक उद्योगों को इस अधिनियम के अन्तर्गत ले लिया गया। इस प्रकार राज्य सूची में वर्णित 24, 26 तथा 27 क्रम वाले विषयों पर केन्द्र का अधिकार स्थापित हो गया। यही नहीं, रेजन पत्ती, कागज, गोंद, जूते, माचिस, साबुन, आदि से सम्बन्धित उद्योगों पर भी केन्द्रीय सरकार का नियन्त्रण स्थापित हो गया। राज्यों के नेताओं का कहना है कि इस प्रकार के अत्यधिक केन्द्रीकरण से राज्यों का आर्थिक विकास अवरूद्ध हो रहा है।

  1. भारतीय संघ में केन्द्र-राज्य

अखिल भारतीय सेवाएं:- अनुच्छेद 312 के अनुसार राज्यसभा उपस्थित तथा मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा प्रस्ताव पास कर किसी नवीन अखिल भारतीय सेवा का निर्माण कर सकती है। यद्यपि इन सेवाओं के सदस्यों द्वारा वेतन, भत्ते, आदि राज्य सरकारों से प्राप्त किए जाते हैं, लेकिन उनकी वेतन शृंखला और अन्य उपलब्धियां केन्द्र सरकार द्वारा ही निश्चित की जाती हैं। इसके अतिरिक्त, इन सेवाओं के सदस्यों के विरूद्ध कोई भी अनुशासन सम्बन्धी कार्यवाही संघीय गृह मन्त्रालय द्वारा संघ लोक सेवा आयोग के परामर्श के आधार पर ही की जा सकती है। ये अखिल भारतीय सेवाएं राज्य सरकारों पर केन्द्रीय नियन्त्रण के बहुत अधिक महत्वपूर्ण उपाय हैं।

सहायता अनुदान:-अनुच्छेद 275 के अनुसार संसद राज्यों को आवश्यकतानुसार सहायता व अनुदान भी दे सकती हे। अनुदान देते समय संसद राज्यों पर कुछ शर्तें लगाकर उनके व्यय को भी नियन्त्रित कर सकती है।

आपातकाल की घोषणा:-इन सबके अतिरिक्त जब राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपातकाल की घोषणा करते हैं तब राज्यों पर संघीय सरकार का पूर्ण नियन्त्रण स्थापित हो जाता है।

(ख) केन्द्र-राज्य मतभेदों के निवारण की विधियां:-संघीय शासन प्रणाली में पारस्परिक सहयोग होना आवश्यक है। यद्यपि राज्यों को पृथक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं तथापि संविधान में निम्नलिखित विषयों पर राज्यों के पारस्परिक सहयोग पर बल दिया गया है:

संघीय क्रियाओं, अभिलेखों तथा न्यायिक कार्यवाहियों को मान्यता प्रदान करना:-अनुच्छेद 261 के अनुसार, भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र संघ की तथा प्रत्येक राज्य की सार्वजनिक क्रियाओं, अभिलेखों तथा न्यायिक कार्यवाहियों को पूरी मान्यता दी जाएगी। इनकी प्राथमिकता सिद्ध करने की रीति और शर्तें तथा उनके प्रभाव का निर्धारण संसद द्वारा उपबन्धित रीति के अनुसार होगा। यह भी आयोजित किया गया है कि भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग के दीवानी न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय तथा आदेश उस राज्य क्षेत्र के अन्दर सभी स्थानों पर निष्पादित किए जाएंगे।

अन्तर्राज्यीय नदियों या नदी के जल सम्बन्धी विवादों का निर्णय:- अनुच्छेद 262 के अनुसार, किसी अन्तर्राज्यीय नदी तथा घाटी के या जलाशयों के प्रयोग, वितरण, विवाद या फरियाद के न्याय निर्णय के बारे में संसद विधि द्वारा व्यवस्था करेगी। ऐसे विवाद के सम्बन्ध में संसद यह निर्णय भी कर सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय या अन्य कोई न्यायालय इस सम्बन्ध में क्षेत्राधिकार का प्रयोग नहीं करेगा।

अन्तर्राज्य परिषद की व्यवस्था:- अनुच्छेद 263 के अन्तर्गत, राज्यों के पारस्परिक सहयोग के लिए एक अन्तर्राज्यीय परिषद का प्रावधान किया गया है। इस परिषद का प्रमुख कार्य राज्यों के मध्य विवादों का परीक्षण करना तथा उन पर परामर्श देना है। भारतीय राज व्यवस्था में पहली बार जून 1990 में अन्तर्राज्य परिषद की स्थापना की गई है।

क्षेत्रीय परिषदों का निर्णय(Zonal Councils):-क्षेत्रीय परिषदों का निर्माण भी किया जा सकता है। व्यवहार में सम्पूर्ण भारत को पांच क्षेत्रों में विभाजित किया गया है और प्रत्येक क्षेत्र के लिए एक क्षेत्रीय परिषद है। क्षेत्रीय परिषदों के कार्य उन विषयों से सम्बन्धित होंगे जिनमें क्षेत्र के सभी या कुछ राज्य या संघ और एक या अधिक राज्य रुचि रखते हैं।

अन्तर्राज्यीय व्यापार-वाणिज्य से सम्बन्धित संविधान के प्रावधानों के क्रियान्वयन के लिए अनुच्छेद 307 के अनुसार संसद एक प्राधिकारी की नियुक्ति करेगी तथा उसको ऐसी शक्तियां और कर्तव्य सौंप सकती है जो वह आवश्यक समझे।

इसके अतिरिक्त कतिपय ऐसे भी विषय हैं जिनका सम्बन्ध यद्यपि दोनों सरकारों से है तथापि इनका निर्धारण केन्द्रीय सरकार ही करती है। उदाहरण के लिए, निर्वाचन, लेखा परीक्षण, राज्यपाल की नियुक्ति, आदि

केन्द्र-राज्य प्रशासनिक संबंध

केंद्र राज्य विवाद

सबसे अधिक विवाद राज्यपालों की नियुक्ति तथा उनकी भूमिका को लेकर रहता है। आमतौर पर राज्यपालों की नियुक्ति तथा पदविमुक्ति में केन्द्र सरकार मनमाने तरीके से निर्णय लेती हैं। इसमें मुख्यमंत्रियों की सलाह या सहमति को महत्त्व नहीं दिया जाता है। राज्यपाल भी केन्द्र सरकार के एजेन्ट की तरह राज्य सरकारों से बर्ताव करते हैं। उदाहरण के लिए कर्नाटक में 2023 में हुए विधान सभा चुनाव परिणाम के बाद राज्यपाल की भूमिका विवादित रही है।


संबंधों में तनाव का एक बड़ा कारण राज्यों की केन्द्र पर वित्तीय निर्भरता है। कई बार देखने में आया है कि राज्यों के पास वित्तीय संसाधनों की कमी रहती है जबकि उनके दायित्व लगातार बढ़ रहे हैं।
नौकरशाही भी एक महत्वपूर्ण कारण रहा है जिस पर केन्द्र व राज्यों के बीच मतभेद दिखाई देता है।

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आज केन्द्र-राज्यों के संबंध में खटास की एक मुख्य वजह आर्थिक नियोजन है। हालाँकि नीति आयोग द्वारा इस तनाव को कम करने के लिए प्रयास किए गए हैं। इसके बावजूद तनाव बरकरार है। उल्लेखनीय है कि संथानम कमेटी के अनुसार जो पद्धति अपनायी गयी है वह केन्द्रीकरण को प्रोत्साहन देती है। ज्ञातव्य है कि एक लम्बे समय तक योजना आयोग (वर्तमान में नीति आयोग) में राज्यों को प्रतिनिधित्व प्रदान नहीं किया गया।

केंद्र और राज्य के बीच संबंध


जिन राज्यों में विरोधी दलों की सरकारें होती हैं उनके साथ वित्तीय आवंटन में भेदभाव किया जाता है। ऐसा आरोप राज्य सरकारें केन्द्र सरकार पर लगाती आयी हैं।
हाल ही में केन्द्र-राज्य के संबंधों में तनाव का कारण राज्यों के बढ़ते दायित्व और सीमित श्रेय रहा है। उदाहरण के लिए बिहार के मुख्यमंत्री ने केन्द्र द्वारा चलाई जाने वाली योजनाओं का विरोध किया दरअसल उनका आरोप है कि केन्द्रीय योजनाओं में औसतन 40 प्रतिशत हिस्सा राज्यों को व्यय करना पड़ता है लेकिन श्रेय केन्द्र सरकार को चला जाता है।


उल्लेखनीय है कि अखिल भारतीय सेवाएँ राज्यों की स्वायत्तता को कम करती हैं क्योंकि कई बार इनके अधिकारी केन्द्र के एजेन्ट की भाँति व्यवहार करने लगते हैं। अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों का वेतन उच्च स्तर का होता है जो राज्य की वित्तीय स्थिति को प्रभावित करता है। इन अधिकारियों की नियुक्ति, पदोन्नति और बर्खास्तगी का अधिकार केन्द्र का होता है। इसलिए इन अधिकारियों में राज्यों के प्रति अपनत्व की भावना नहीं होती है।


नियोजन का संबंध शासन के सभी विषयों से है इसलिए केन्द्र राज्य सूची के विषयों पर भी योजना बनाने वाला बन गया। भारतीय इतिहास में यह स्थिति जटिल रूप से तब प्रकट हुई जब चौथी पंचवर्षीय योजना के प्रारूप को राष्ट्रीय विकास परिषद् ने औपचारिक रूप से अस्वीकृत कर दिया और पश्चिम बंगाल और केरल के मुख्यमंत्री तथा दिल्ली के मुख्य कार्यकारी परिषदों ने अपने राज्यों की अनदेखी का आरोप लगाया।


अखिल भारतीय सेवाएँ भी केन्द्र को राज्य प्रशासन पे नियंत्रण प्राप्त करने में सहायता देती हैं। अनु 262 संसद को अधिकार देता है कि वह अंतराज्य जल विवाद को सुलझाने हेतु विधि का निर्माण करे संसद ने अंतराज्य जल विवाद तथा बोर्ड एक्ट पारित किये थे। अनु 263 राष्ट्राप्ति को शक्ति देता है कि वह अंतराज्य परिषद स्थापित करे ताकि राज्यों के मध्य उत्पन्न मत विभिन्ंता सुलझा सके।

केन्द्र को यह अधिकार है कि राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा आदि के संदर्भ में केन्द्र राज्य में अर्द्ध सैनिक बलों की नियुक्ति कर सकता है। यह स्थिति और अधिक विवादास्पद तब हो जाती है जब केन्द्र और राज्य में अलग-अलग सरकारें काम करती हैं और राज्य सरकार की नीतियाँ केन्द्र से मेल नहीं खाती हैं।


दूसरा कारण राज्यों द्वारा शासन संविधान के उपबंधों के तहत नहीं चलाया जाने पर केन्द्र सरकार द्वारा राज्य सरकार को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लागू करना है। संविधान लागू होने के तुरंत बाद से ही इस प्रावधान का दुरुपयोग हुआ था। अभी तक उत्तर प्रदेश तथा केरल में 9-9 बार, पंजाब में 8 बार और बिहार में 7 बार इसका प्रयोग किया जा चुका है। राज्यों की माँग है कि इस अनुच्छेद को संविधान से हटाया जाए या इसमें व्यापक संशोधन किये जाएँ।

अनुच्छेद 263 राज्यों के बीच विवादों पर चर्चा करने के लिए राष्ट्रपति को जांच कराने के लिए एक अंतर-राज्य परिषद का गठन करने की शक्ति देता है। यह राष्ट्रपति को कुछ या सभी राज्यों या संघ अथवा एक से अधिक राज्यों के उन विषयों पर जांच या चर्चा कराने की भी अनुमति देता है जिन पर सभी का एक साझा हित होता है।


केन्द्र-राज्य के बीच प्रशासनिक संबंध


भारत में संघ और राज्यों के बीच प्रशासनिक संबंध निर्धारित करने वाले उपबन्धों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है-

संघ क्षेत्रीय परिषद् का भी गठन कर सकती है। यह ऐसे विषयों पर कार्य करती हैं जिनमें सभी राज्य या कुछ राज्य रुचि प्रदर्शित करते हैं। कुछ ऐसे विषय भी हैं जिनमें प्रशासनिक निर्णय का अधिकार संघ राज्य दोनों को होता है, किन्तु निर्धारण संघ ही करता है। जैसे निर्वाचन, लेखा परीक्षण, राज्यपालों की नियुक्तियाँ आदि।

केन्द्र तथा राज्यों के प्रशासनिक संबंधों को प्रभावित करने वाले उपबंध

  • संवैधानिक प्रावधान
  • संविधानेत्तर प्रावधान
  • संवैधानिक प्रावधान
  • राज्य सरकार को सामान्यतः अपने प्रशासनिक कार्यों में पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त रहती है फिर भी केन्द्र सरकार कुछ सीमा तक उन्हें नियंत्रित व निर्देशित करती है, जैसे-

राज्य सरकारों को संघीय कृत्य सौंपना:- अनुच्छेद 258 में निर्धारित शर्तों के अनुसार संघ राज्यों को अपने कुछ प्रशासनिक कृत्य हस्तान्तरित कर सकता है तथा राज्य संघ को अपने कुछ प्रशासनिक कृत्य सौंप सकते हैं। संघ सरकार द्वारा राज्य सरकारों को अपने प्रशासनिक कृत्य सौंपे जाने पर इन कृत्यों को सम्पन्न करने में जो भी खर्च होगा उसका वहन संघीय सरकार करेगी।


केन्द्र और राज्यों के प्रशासनिक संबंधों को प्रभावित करने वाले अन्य कई कारक ऐसे भी होते हैं जो संविधान में वर्णित नहीं होते हैं लेकिन विभिन्न निकायों या सम्मेलनों आदि के रूप में विद्यमान होते हैं। उदाहरण के तौर पर ऐसे सलाहकारी निकाय हैं जो केन्द्र तथा राज्यों के समन्वय को बढ़ाने का प्रयास करते हैं। ऐसे निकायों में अध्यक्षता केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त पदाधिकारी करता है जबकि राज्यों की भूमिका सदस्यों के रूप में होती है। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय विकास परिषद्, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा क्षेत्रीय परिषद् आदि।

चर्चा का कारण
हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रलय ने दिशा-निर्देशों को जारी करते हुए पश्चिम बंगाल में हिंसा रोकने एवं कानून का शासन सुनिश्चित करने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों की रिपोर्ट माँगी है। साथ ही केंद्र ने बंगाल सरकार से राजनीतिक हिंसा और उसके दोषियों पर हुई कार्रवाई का विवरण भी देने को कहा है।

kendra rajya sambandh par prakash daliye

भारत में स्वतंत्रता के उपरांत से ही केंद्र-राज्य संबंध का मसला अत्यधिक संवेदनशील रहा है। विषय चाहे अलग भाषाओं की पहचान, असमान विकास, राज्यों के गठन का हो या पुनर्गठन का, विशेष राज्य का दर्जा देने से जुड़ा हो या फिर राज्यों में आंतरिक हिंसा का। ये सब केंद्र-राज्य संबंधों की सीमा में आते हैं। भारतीय संविधान में भारत को ‘राज्यों का संघ’ कहा गया है न कि संघवादी राज्य। भारतीय संविधान ने विधायी, प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियों का सुस्पष्ट बँटवारा केंद्र और राज्यों के बीच किया है।

अनुच्छेद 257 में उपबन्धित किया गया है कि प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का इस प्रकार प्रयोग होना चाहिए जिससे संघ की कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग में बाधा या प्रतिकूल प्रभाव न पड़े तथा संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को ऐसे निर्देश देने तक विस्तृत होगा, जो भारत सरकार को इस प्रयोग के लिए आवश्यक दिखायी दे। यह देखना भी संघ की कार्यपालिका का कर्तव्य है कि राज्य सरकारें सामरिक महत्व की सड़कों और अन्य संचार साधनों की उचित देखभाल करें।

प्रशासनिक सम्बन्ध: संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में

केन्द्र एवं राज्यों के बीच प्रशासनिक संबंधों का वर्णन संविधान के भाग-11 अनुच्छेद 256 से 263 तक किया गया है। संविधान में इस सिद्धान्त को मान्यता दी गयी है कि कार्यपालिका विधायिका की सहविस्तारी होगी, अर्थात् जिस विषय पर संसद कानून बना सकता है, उस विषय पर केन्द्रीय कार्यपालिका का नियंत्रण होगा और जिस विषय पर राज्य का विधानमण्डल कानून बना सकता है उस विषय पर राज्य की कार्यपालिका का नियंत्रण होगा। समवर्ती सूची के विषयों के संबंध में कानून बनाने का अधिकार संसद और राज्य विधानमंडल दोनों को है, किन्तु संसद तथा राज्य विधानमंडल द्वारा बनाई गयी विधियों में विरोध (Conflict) होने पर संसद द्वारा बनाई गई विधि मान्य होगी तथा राज्य विधानमंडल द्वारा बनाई गयी विधि, विरोध की मात्र तक शून्य होगी (अनुच्छेद 254)।

केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग

केंद्र-राज्य संबंधों से संबंधित पहले प्रशासनिक सुधार आयोग की महत्वपूर्ण सिफारिशें इस प्रकार हैं:

• अनुच्छेद 263 के तहत एक अंतर-राज्यीय परिषद की स्थापना।

• राज्यों के लिए वित्तीय संसाधनों का अधिक हस्तांतरण।

• इस तरह की हस्तांतरण की व्यवस्था करना जिससे राज्य अपने दायित्वों को पूरा कर सकते हैं।

• राज्यों के लिए ऋण की प्रगति ‘उत्पादक सिद्धांत’ के रूप से संबंधित होनी चाहिए।

• राज्यों में उनके अनुरोध या अन्यथा के अनुसार केंद्रीय सशस्त्र बलों की तैनाती।

• जितना संभव हो सके राज्यों के लिए शक्तियों का विकेन्द्रीकरण।

राज्य आपात स्थिति के दौरान, अनुच्छेद 356 के तहत एक राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता की स्थिति में राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है।

संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग और समन्वय को सुरक्षित करने के लिए विभिन्न प्रावधान तय किए गए हैं। इसमें शामिल है:

I. अनुच्छेद 261 यह बताता है कि “सार्वजनिक कानूनों, रिकॉर्ड और प्रत्येक राज्य तथा संघ की न्यायिक कार्यवाही के लिए पूर्ण विश्वास और पूरा श्रेय भारतीय भूभाग को दिया जाना चाहिए।”

II. अनुच्छेद 262 के अनुसार, ‘संसद, विधि द्वारा किसी भी अन्तार्रजीय नदी या नदी घाटी के पानी के उपयोग, वितरण या नियंत्रण के संबंध में किसी भी विवाद या शिकायत पर निर्णय या फैसला सुना सकती है।”

III. अनुच्छेद 263 राज्यों के बीच विवादों पर चर्चा करने के लिए राष्ट्रपति को जांच कराने के लिए एक अंतर-राज्य परिषद का गठन करने की शक्ति देता है। यह राष्ट्रपति को कुछ या सभी राज्यों या संघ अथवा एक से अधिक राज्यों के उन विषयों पर जांच या चर्चा कराने की भी अनुमति देता है जिन पर सभी का एक साझा हित होता है।

IV. अनुच्छेद 307 के अनुसार, संसद कानून के द्वारा व्यापार और वाणिज्य के अन्तार्रजीय स्वतंत्रता से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए उचित समझे जाने वाले कानून द्वारा ऐसे प्राधिकारी नियुक्त कर सकता है।

आपातकाल के दौरान केंद्र और राज्य के संबंध

i. एक राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) के दौरान राज्य सरकार केंद्र सरकार के अधीनस्थ हो जाती है। राज्य के सभी कार्यकारी कार्य केंद्र सरकार के नियंत्रण में आ जाते हैं।

ii. एक राज्य में आपातस्थिति के दौरान (अनुच्छेद 356 के तहत), राज्य के विधान मंडल के अलावा, राष्ट्रपति खुद सभी या राज्य सरकार और राज्य में राज्यपाल या प्राधिकारी द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्तियों और सभी या किसी भी कार्य को अपने हाथों में ले सकते हैं।

iii. वित्तीय आपात स्थिति (अनुच्छेद 360) के दौरान संघ अथवा केंद्र किसी भी राज्य सरकार को वित्तीय सिद्धांतों का पालन करने के दिशा-निर्देश दे सकता है जो विशिष्ट दिशा-निर्दिष्ट भी हो सकते हैं। इन दिये जाने वाले दिशा-निर्देशों पर राष्ट्रपति स्पष्ट और आवश्यक निर्णय दे सकते हैं।

अनुच्छेद 256-263 का संबंध केंद्र और राज्यों के बीच प्रशासनिक संबंधों के आदान-प्रदान से है। अनुच्छेद 256 यह बताता है कि संसद द्वारा बनाए गये कानूनों का अनुपालन सुनिश्चत करना प्रत्येक राज्य का अधिकार है। कोई भी मौजूदा कानून जो उस राज्य पर लागू होता है और संघ की कार्यकारी शक्ति का विस्तार करने हेतु एक राज्य को इस तरह के दिशा-निर्देश दिए जाते हैं जिसे राज्य को इस उद्देश्य हेतु भारत सरकार के सामने प्रस्तुत करना जरूरी होता है।

भारतीय संविधान के ग्यारहवें भाग के दूसरे अध्याय में केन्द्र तथा राज्यों के बीच प्रशासनिक सम्बन्धों की चर्चा की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 73 के अनुसार केन्द्र की प्रशासकीय शक्ति उन विषयों तक सीमित है जिन पर संसद को विधि निर्माण का अधिकार प्राप्त है। इसी प्रकार संविधान के अनुच्छेद 162 के अनुसार राज्यों की प्रशासकीय शक्तियां उन विषयों तक सीमित हैं जिन पर राज्य विधानसभाओं को कानून बनाने का अधिकार है। समवर्ती सूची के विषयों के सम्बन्ध में प्रशासनिक अधिकार साधारणतया राज्यों में निहित हैं, किन्तु इन विषयों पर राज्य की प्रशासकीय शक्तियों को संघ की ऐसी प्रशासनिक शक्तियों द्वारा सीमित रखा गया है जो या तो संविधान द्वारा या संसदीय विधि द्वारा प्रदत्त हैं।

प्रशासनिक सम्बन्ध

(क) राज्यों के ऊपर संघीय नियन्त्रण के उपाय:-संकटकाल में केन्द्रीय सरकार का राज्य सरकार के ऊपर पूर्ण नियन्त्रण रहता है। साधारण काल में यद्यपि राज्य सरकारों को सामान्यतया अपने क्षेत्र में पूर्ण सत्ता प्राप्त रहती है फिर भी केन्द्रीय सरकार कुछ सीमा तक उन्हें नियन्त्रित करती है। नियन्त्रण के अग्रलिखित साधनों को अपनाया गया है:

राज्य सरकारों को निर्देश:- अनुच्छेद 256 के अनुसार राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार होगा कि संसद द्वारा निर्मित कानूनों का पालन सुनिश्चित रहे। संघीय कार्यपालिका को यदि वह आवश्यक समझे तो इस सम्बन्ध में राज्य सरकारों को आवश्यक निर्देश द्वारा पारित विधियों के क्रियान्वयन के मार्ग में कोई बाधा न पहुंचे।

विधायिका स्तर पर केन्द्र-राज्य सम्बन्ध

संविधान की सातंवी अनुसूची विधायिका के विषय़ केन्द्र राज्य के मध्य विभाजित करती है संघ सूची में महत्वपूर्ण तथा सर्वाधिक विषय़ है
राज्यों पर केन्द्र का विधान संबंधी नियंत्रण

भारत में संघ को मजबूत आधार देने के लिए आर्थिक उदारीकरण के साथ राजनीतिक शक्ति और व्यवस्था का विकेंद्रीकरण आवश्यक हो गया है।
भारत संघ को फेडरल संघ का रूप देने के लिए यह जरूरी है कि वह स्वायत्तशासी इकाइयों के रूप में काम करे।
राज्यपालों की नियुत्तिफ़ के मानदंडों में परिवर्तन होने चाहिए। सरकारिया आयोग द्वारा सुझाये गए बिंदुओं को अमल में लाये जाने की आवश्यकता है।
अनुच्छेद 356 से संबंधित समस्याएँ अनुच्छेद 256, 257, 355, 356 और 365 के अनुचित क्रियान्वयन के कारण पैदा हुई हैं। इन सब अनुच्छेदों को एक साथ पढ़ने की जरूरत है। अनुच्छेद 355 के अधीन संघ सरकार, अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लागू किए बिना राज्य के प्रति कुछ दायित्वों का निर्वहन कर सकती है।
ग्यारहवीं और बारहवीं अनुसूची को आदेशात्मक बना देना चाहिए। इन दोनों अनुसूचियों को मिलाकर एक सामान्य सूची का निर्माण करना चाहिए।
परंपरागत संस्थाओं, स्वायत्तशासी जिला परिषदों तथा अधीन न्यायपालिका के परस्पर-व्याप्त अधिकार-क्षेत्र के कारण न्याय-प्रशासन में दिक्कतें पैदा हो रही हैं जिसे सुलझाने की आवश्यकता है।

संघीय कार्यपालिका किसी राज्य क्षेत्र के अन्तर्गत रेल-पथ की रक्षा के लिए उस राज्य की सरकार को निर्देश दे सकती है। संचार साधनों तथा रेल-पथों के निर्माण, देखभाल तथा संरक्षण के सम्बन्ध में संघीय कार्यपालिका के निर्देश के कारण जो अतिरिक्त व्यय होगा, उस अतिरिक्त धनराशि का वहन संघीय सरकार को करना होगा।

उल्लेखनीय यह है कि अनुच्छेद 256 संघीय कार्यपालिका को उसके निर्देशों को लागू करने के लिए बाध्यकारी शक्ति प्रदान करता है। इसके अन्तर्गत राज्य सरकार द्वारा निर्देशों का पालन न किए जाने पर राष्ट्रपति संकटकाल की उद्घोषणा कर राज्य के शासन को अपने हाथ में ले सकता है।

भारतीय संघ में केन्द्र-राज्य वित्तीय सम्बन्ध

केन्द्र-राज्य वित्तीय सम्बन्ध: संवैधानिक प्रावधान

केन्द्र तथा राज्यों के मध्य राजस्व के साधनों के विभाजन के आधारभूत सिद्धान्त हैं-कार्यक्षमता, पर्याप्तता तथा उपयुक्तता। इन तीनों उद्देश्यों की एक साथ ही प्राप्ति अत्यन्त कठिन थी, अतः भारतीय संविधान में समझौतें की चेष्टा की गयी। संविधान द्वारा केन्द्र तथा राज्यों के मध्य वित्तीय सम्बन्धों को निरूपण इस प्रकार किया जाता है:

  1. कर निर्धारण, शक्ति का वितरण और करों से प्राप्त आय का विभाजन:- भारतीय संविधान में वित्तीय प्रावधानों की दो विशेषताएं हैं: प्रथम, संघ तथा राज्यों के मध्य कर-निर्धारण की शक्ति का पूर्ण विभाजन कर दिया गया है और द्वितीय, करों से प्राप्त आय का बंटवारा होता है।

संघ के प्रमुख राजस्व स्रोत इस प्रकार हैं-निगम कर, सीमा शुल्क, निर्यात शुल्क, कृषि भूमि को छोड़कर अन्य सम्पत्ति पर सम्पदा शुल्क, विदेश ऋण, रेलें, रिजर्व बैंक, शेयर, बाजार, आदि। राज्यों के राजस्व स्रोत हैं-प्रति व्यक्ति कर, कृषि भूमि पर कर, सम्पदा शुल्क, भूमि और भवनों पर कर, पशुओं तथा नौकाओं पर कर, बिजली के उपयोग तथा विक्रय पर कर, वाहनों पर चुंगी कर, आदि।

संघ द्वारा आरोपित तथा संग्रहीत तथा विनियोजित किए जाने वाले शुल्कों के उदाहरण हैं: बिल, विनिमयों, प्रोमिसरी नोटों, हुण्डियों, चैकों, आदि पर मुद्रांक शुल्क और दवा, मादक द्रव्य पर कर, शौक-श्रंगार की चीजों पर कर तथा उत्पादन शुल्क।

अनुच्छेद 275 के तहत, संसद किसी भी राज्य के लिए अनुदान सहायता प्रदान करने के लिए अधिकृत है। संसद सहायता की जरूरत निर्धारित की जरूरत होने के लिए निर्धारित कर सकते हैं अनुदान सहायता की जरूरत निर्धारित कर सकते हैं और विभिन्न राज्यों के लिए भिन्न राशियां तय की जा सकती है।

अनुच्छेद 282 के तहत, संघ या किसी राज्य किसी भी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए किसी भी प्रकार का अनुदान कर सकते हैं, बाबजूद इसके भी कि जिस संदर्भ के साथ संसद और राज्य विधायिका, नियमों का निर्माण किया है वो उसका उद्देश्य है ही नहीं।

अनुच्छेद 352 के तहत, राष्ट्रीय आपातकाल की कार्रवाई के दौरान, केंद्र और राज्यों के बीच राजस्व के वितरण को राष्ट्रपति द्वारा बदला जा सकता है।

हालांकि, कर राजस्व वितरण के मामले में,

• अनुच्छेद 268 यह बताता है कि कर संघ अथवा केंद्र द्वारा लगाए जाते हैं लेकिन राज्य द्वारा उन्हें एकत्र और विनियोजित किया जाता है;

• सेवा कर, संघ द्वारा लगाए जाता है और संघ एवं राज्यों द्वारा एकत्र और विनियोजित किया जाता है (अनुच्छेद 268-ए);

• करों को संघ द्वारा लगाया और एकत्र किया जाता है लेकिन राज्यों को सौंपा जाता है (अनुच्छेद 269);

• करों को संघ द्वारा लगाया और एकत्र किया जाता है लेकिन राज्यों और संघों के बीच वितरित किया जाता है (अनुच्छेद 270);

• संघ के प्रयोजनों के लिए कुछ खास शुल्कों और करों पर अधिभार लगाया जाता है (अनुच्छेद 271)।

संघ द्वारा आरोपित तथा संग्रहीत किन्तु राज्यों को सौंपे जाने वाले करों के उदाहरण हैं: कृषि भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति के उत्तराधिकार पर कर, कृषि भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति पर सम्पदा शुल्क, रेल, समुद्र, वायु द्वारा ले जाने वाले माल तथा यात्रियों पर सीमान्त कर, रेल भाड़ों तथा वस्तु भाड़ों पर कर, शेयर बाजार तथा सट्टा बाजार के आदान-प्रदान पर मुद्रांक शुल्क के अतिरिक्त कर, समाचार-पत्रों के क्रय-विक्रय तथा उसमें प्रकाशित किए गए विज्ञापनों पर और समाचार-पत्रों के अन्य अन्तर्राज्यीय व्यापार तथा वाणिज्य से माल के क्रय-विक्रय पर कर।

कतिपय कर संघ द्वारा आरोपित तथा संग्रहीत किए जाते हैं, पर उनका विभाजन संघ तथा राज्यों के बीच होता है। आय-कर का विभाजन संघीय भू-भागों के लिए निर्धारित निधि तथा संघीय खर्च को काटकर शेष राशि में से किया जाता है। आय-कर के अतिरिक्त दावा तथा शौक-शंृगार सम्बन्धी चीजों के अतिरिक्त अन्य चीजों पर लगाया गया उत्पादन शुल्क इसके अन्तर्गत आता है।

  1. सहायता अनुदान तथा अन्य सार्वजनिक उद्देश्य के लिए दिया जाने वाला अनुदान:- संविधान के अन्तर्गत केन्द्र द्वारा राज्यों को चार तरह के सहायक अनुदान प्रदान करने की व्यवस्था की गयी है। प्रथम पटसन व उससे बनी वस्तुओं के निर्यात से जो शुल्क प्राप्त होता है उसमें से कुछ भाग अनुदान के रूप में जूट पैदा करने वाले राज्यों-बिहार , पं0 बंगाल, असम व उड़ीसा-को दे दिया जाता है। द्वितीय, बाढ़, भूकम्प व सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पीडि़तों की सहायता के लिए भी केन्द्रीय सरकार राज्यों को अनुदान दे सकती है।
  2. तृतीय, जनजातियों व कबीलों की उन्नति व उनके कल्याण की योजनाओं के लिए भी सहायक अनुदान दिया जाता है। चतुर्थ, राज्यों को आर्थिक कठिनाइयों से उबारने के लिए केन्द्र राज्यों की वित्तीय सहायता कर सकता है।
  3. ऋण लेने सम्बन्धी उपबन्ध:- संविधान केन्द्र को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह अपनी संचित निधि की साख पर देशवासियों व विदेशी सरकारों से ऋण ले सके। ऋण लेने का अधिकार राज्यों को भी प्राप्त है, परन्तु वे विदेशों से उधार नहीं ले सकते। यदि किसी राज्य सरकार पर संघ सरकार का कोई कर्ज बाकी है तो राज्य सरकार अन्य कर्ज संघ सरकार की अनुमति से ही ले सकती है। इस प्रकार का कर्ज देते समय संघ सरकार किसी भी प्रकार की शर्त लगा सकती है।
  4. करों की विमुक्ति:- राज्यों द्वारा संघ की सम्पत्ति पर कोई कर तब तक नहीं लगाया जा सकता जब तक संसद विधि द्वारा कोई प्रावधान न कर दे। भारत सरकार या रेलवे द्वारा प्रयोग में आने वाली बिजली पर संसद की अनुमति के अभाव में राज्य किसी प्रकार का शुल्क नहीं लगा सकते। इसी प्रकार संघ सरकार भी राज्य की सम्पत्ति और आय पर कर नहीं लगा सकती।
  5. भारत के नियन्त्रक-महालेखा परीक्षक द्वारा नियन्त्रण:- भारत के नियन्त्रक-महालेखा परीक्षक की नियुक्ति केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल के परामर्श से राष्ट्रपति करता है। यह भारत सरकार तथा राज्य सरकारों के हिसाब का लेखा रखने के ढंग और उनकी निष्पक्ष रूप से जांच करता है। नियन्त्रक तथा महालेखा परीक्षक के माध्यम से ही भारतीय संसद राज्यों की आय पर अपना नियन्त्रण रखती है।
  6. वित्तीय संकटकाल:- वित्तीय संकटकालीन घोषणा की स्थिति में राज्यों की आय सीमा राज्य सूची में चर्चित करों तक ही सीमित रहती है। वित्तीय संकट के प्रवर्तन काल में राष्ट्रपति को संविधान के उन सभी प्रावधानों को स्थगित करने का अधिकार है जो सहायता अनुदान अथवा संघ के करों को आय में भाग बंटाने से सम्बन्धित हों। केन्द्रीय सरकार वित्तीय मामलों में राज्यों को निर्देश भी दे सकती है।

राज्यपाल:-

राज्यपाल के पद पर ऐेसे व्यक्ति को ही नियुक्त किया जाना चाहिए जो किसी क्षेत्र में जानी-मानी हस्ती हो। वह ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जिसने दलीय राजनीति में सक्रिय भाग, विशेषकर नियुक्ति के तत्काल पहले सक्रिय भाग न लिया हो।

जांच आयेाग:- केन्द्र सरकार को किसी राज्य के मुख्यमन्त्री या पूर्व मुख्यमंत्री के विरूद्ध पद के दुरुपयोग के आरोपों की जांच के लिए जांच आयोग नियुक्त करने का अधिकार है। इस अधिकार का दुरुपयोग न किया जा सके, इसके लिए व्यवस्था होनी चाहिए कि केन्द्र सरकार के ऐसे किसी प्रस्ताव पर संसद के दोनों सदनों का अनुसमर्थन आवश्यक हो।


द्वितीय ‘राज्य सूची’ में राज्य सरकार के पास कानून बनाने की शक्ति है लेकिन मतभेद की स्थिति में राज्य कानून के ऊपर केंद्रीय कानून को वरीयता मिलेगी। इस सूची में 61 विषय (मूलतः 66 विषय) हैं, जैसे- स्थानीय शासन, मत्स्य पालन, सार्वजनिक व्यवस्था आदि।
तीसरी ‘समवर्ती सूची’ जहाँ केंद्र व राज्य के कानूनों में विरोध नहीं होना चाहिये अन्यथा केंद्र के कानून प्रभावी होंगे। वर्तमान में इसमें 52 विषय (मूलतः 47) हैं, जैसे- आपराधिक कानून प्रक्रिया, सिविल प्रक्रिया, विवाह एवं तलाक, श्रम कल्याण, बिजली आदि।
42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के तहत पाँच विषयों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में शामिल किया गया है। वे हैं- शिक्षा, वन, नाप-तौल, वन्यजीवों एवं पक्षियों का संरक्षण, न्याय का प्रशासन।
संविधान के अनुच्छेद 248 (1) में यह कहा गया है कि संसद को उन सभी विषयों पर कानून बनाने का अनन्य अधिकार है जिनका उल्लेख राज्य व समवर्ती सूची में नहीं है। दूसरे शब्दों में अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र सरकार के पास हैं।
साथ ही संसद को यह शक्ति दी गई है कि वह किसी अंतर्राष्ट्रीय संधि, करार, अभिसमय को कार्य रूप देने के लिये समूचे देश या उसके किसी भाग के लिये कोई विधि बना सके ( अनुच्छेद 253)।

भारत, राज्यों का एक संघ है। भारत के संविधान को विधायपालिका, कार्यपालिका और केंद्र तथा राज्यों के बीच वित्तीय शक्तियों में विभाजित किया गया है, जो संविधान को संघीय विशेषता प्रदान करता है जबकि न्यायपालिका एक श्रेणीबद्ध संरचना में एकीकृत है। भाग XI में अनुच्छेद 245-255 केंद्र और राज्यों के बीच विधायी संबंधों के विभिन्न पहलुओं का आदान-प्रदान करता है। संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग और समन्वय को सुरक्षित करने के लिए विभिन्न प्रावधान तय किए गए हैं।

केंद्र-राज्य संबंध तीन भागों में विभाजित हैं जिनका उल्लेख नीचे किया जा रहा है:

राजस्व शक्तियों का आवंटन

संविधान के बारहवें भाग का अनुच्छेद 268-293 केंद्र और राज्य के वित्तीय संबंधों के संबंधित है।

संविधान, केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को राजस्व के स्वतंत्र स्रोत प्रदान करता है। केंद्र और राज्य को आवंटित शक्तियों को निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा समझा जा सकता है:

(i) संसद के पास संघ सूची में उल्लिखित विषयों पर कर लगाने की अनन्य शक्ति है।

(ii) राज्य विधायिकाओं के पास राज्य सूची में वर्णित विषयों पर कर लगाने की अनन्य शक्ति है

(iii) संसद और राज्य विधायिका दोनों के पास समवर्ती सूची में वर्णित विषयों पर कर लगाने का अधिकार है।

(iv) संसद के पास अवशिष्ट विषयों से संबंधित मामलों पर कर लगाने की अनन्य शक्ति है।


विधायी शक्ति के विषयों को तीन सूचियों में बांटा गया है।


(1) केंद्रीय सूची
केंद्रीय सूची में वे विषय शामिल किए गए हैं जिन पर सिर्फ केंद्र सरकार कानून बना सकती है। इस सूची में राष्ट्रीय महत्व के विषय शामिल किए गए है जैसे कि प्रतिरक्षा, विदेश संबंध, मुद्रा, संचार और वित्तीय मामले आदि।
(2) राज्य सूची
राज्य सूची में कानून और व्यवस्था, जन स्वास्थ्य, प्रशासन जैसे स्थानीय महत्व के विषयों को शामिल किया गया है।
(3) समवर्त्ती सूची
समवर्त्ती सूची में उन विषयों को शामिल किया गया है जिनपर केंद्र ओर राज्य दोनों ही कानून बना सकते हैं। कोई राज्य सरकार केंद्र के द्वारा बनाए गए कानूनों व नीति के विरोध में या फिर विपरीत कानून नहीं बना सकती है।
संविधान के अनुच्छेद 256 व 255 में केंद्र को शक्तिशाली बनाया गया है।


केंद्र व राज्यों के बीच तनाव के कारण


यहाँ हम केन्द्र-राज्य संबंधों के परिप्रेक्ष्य में उन कारणों का जिक्र कर सकते हैं जो सामान्यतः दोनों के बीच तनाव के लिए जिम्मेदार होते रहे हैं।

परस्पर समन्वय स्थापित करने वाले उपबंध


केन्द्र-राज्य दोनों मिलकर संघवाद को साकार कर सकें, इसको लेकर संविधान में कई उपबंध किए गए हैं जो इस प्रकार हैं-

अनुच्छेद 261 के अनुसार भारत के राज्य क्षेत्र में संघ की सार्वजनिक अभिलेख और न्यायिक कार्यवाही को पूर्ण मान्यता दी जाएगी।
अनुच्छेद 262 के तहत संसद विभिन्न राज्यों के मध्य नदियों, घाटियों या जलाशयों आदि के जल के प्रयोग वितरण तथा नियंत्रण संबंधी विवादों के न्यायनिर्णयन के लिए प्रावधान कर सकती है।
अनुच्छेद 263 के तहत राज्यों में पारस्परिक सहयोग बढ़ाने के लिए राज्यों के विवादों का परीक्षण के लिए राष्ट्रपति अंतर्राज्यीय परिषद का गठन कर सकता है। इस तरह की परिषद् 1990 में बनाई गई थी जो आज तक कार्यरत है।
राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वे राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त ही अपना पद संभालते हैं (अनुच्छेद 155)।
राज्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति राज्यपाल के द्वारा होती है किन्तु उसे पद से हटाने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को होता है।

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